पंजाबी फिल्म कैरी ऑन जट्टा 3 इन दिनों बॉक्स ऑफिस पर जबरदस्त कमाई कर रही है। 29 जून 2023 को रिलीज हुई 10 करोड़ में बनी इस फिल्म ने 11 दिन में वर्ल्ड वाइड 80 करोड़ की कमाई की है और जल्द ही ये 100 करोड़ का बिजनेस कर लेगी। यह कैरी ऑन जट्टा फ्रेंचाइजी की तीसरी फिल्म है, जो कि पंजाबी सिनेमा की सबसे हिट फ्रेंचाइजी है। पहले आई दो फिल्मों ने भी बॉक्स ऑफिस पर करोड़ों का कारोबार किया था।
पंजाबी सिनेमा को पटरी पर लाने में इस फ्रेंचाइजी का बड़ा हाथ है। 2012 में जब कैरी ऑन जट्टा रिलीज हुई तो इंडस्ट्री बुरे दौर से गुजर रही थी। साल भर में इक्का-दुक्का फिल्में बन रही थीं और जो बन रही थीं, वो चल नहीं रही थीं। 1988 में पंजाबी सिनेमा के पहले सुपरस्टार वीरेंद्र सिंह की हत्या के बाद से ही इंडस्ट्री के हालात दोबारा बिगड़ने शुरू हुए और वह बंद होने की कगार पर आ गई थी। वीरेंद्र बॉलीवुड स्टार धर्मेंद्र के कजन थे।
इसके बाद 24 साल तक इंडस्ट्री को बचाने के लिए संघर्ष होते रहे और आखिरकार कैरी ऑन जट्टा ने इंडस्ट्री में दोबारा जान फूंकी। इसके बाद आई कुछ फिल्मों की बदौलत पॉलीवुड की दशा और दिशा बदल गई। 2015 में इंडस्ट्री का रेवेन्यू 241 करोड़ था, लेकिन अब आठ साल बाद इसका टर्नओवर 500 करोड़ के पार हो चुका है। अब साल भर में 40-45 फिल्मों का प्रोडक्शन हो रहा है।
आइए जानते हैं कैसे और कब शुरू हुई पंजाबी फिल्म इंडस्ट्री और अब क्या है इसकी हालत…
1928 में बनी पंजाबी सिनेमा की पहली साइलेंट फिल्म
1928 में डॉटर्स ऑफ टुडे पहली साइलेंट फिल्म थी, जो लाहौर में बनी थी। इस फिल्म में अब्दुर रशीद कारदार ने मुख्य भूमिका निभाई थी। फिल्म के डायरेक्टर शंकरदेव आर्य थे और जीके मेहता ने इसे प्रोड्यूस किया था।
1932 में डायरेक्टर हकीम राम प्रसाद ने पहली पंजाबी साउंड फिल्म बनाई जिसका नाम हीर रांझा था। इसके बाद फिल्में बनने का सिलसिला चलता रहा, लेकिन 1947 में भारत-पाकिस्तान के बंटवारे ने लाहौर से चल रहे पंजाबी सिनेमा की कमर तोड़ दी।
बंटवारे में लाहौर पाकिस्तान के हिस्से में गया और भारत को इससे काफी झटका लगा। कई फिल्ममेकर्स, आर्टिस्ट्स और राइटर्स बॉम्बे (अब मुंबई) चले गए, ताकि वो हिंदी फिल्मों में काम कर पाएं, लेकिन पंजाबी फिल्म इंडस्ट्री को इससे काफी नुकसान झेलना पड़ा।
आजादी के बाद पहली फिल्म थी चमन
लाहौर पाकिस्तान के हिस्से गया तो अमृतसर और मोहाली पंजाबी फिल्म इंडस्ट्री के गढ़ बने। आजादी के 12 महीने बाद, यानी 1948 में पहली पंजाबी फिल्म चमन रिलीज हुई थी। इसका पहला प्रीमियर लाहौर में हुआ और फिर बॉम्बे में। थिएटर में रिलीज होने के बावजूद फिल्म बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप रही थी। इसके दो साल बाद पंजाबी सिनेमा को फिल्म पोस्ती के रूप में अपनी पहली सक्सेसफुल फिल्म मिली।
बंटवारे के बाद रोजी-रोटी कमाने के लिए ज्यादातर आर्टिस्ट्स और फिल्ममेकर्स के बॉम्बे शिफ्ट होने से पंजाबी सिनेमा को काफी नुकसान हुआ। 50 के दशक में ये आलम था कि एक या दो फिल्में ही बन पा रही थीं। ये फिल्में भी बेहद कम बजट और सीमित रिसोर्स से बनीं और सिनेमाघरों में दर्शकों को खींचने में नाकामयाब रहीं। 1950 में पोस्ती के बाद फिल्म भांगड़ा ही दूसरी सफल फिल्म बन पाई।
सतलुज दे कंधे ने जीता था पहला नेशनल अवॉर्ड
60 का दशक पंजाबी सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ। 1961 में पांच पंजाबी फिल्में रिलीज हुईं जिनमें से गुड्डी और बॉलीवुड कॉमेडियन जॉनी वॉकर की फिल्म विलायती बाबू हिट साबित हुईं। इसके बाद 1964 पंजाबी सिनेमा के लिए बेहद सफल साबित हुआ, क्योंकि इस दौरान 8 फिल्में रिलीज हुईं, जिनमें से सतलुज दे कंधे और किकली बड़ी हिट साबित हुईं। सतलुज दे कंधे में बलराज साहनी ने काम किया था। फिल्म को न केवल कॉमर्शियल सक्सेस मिली, बल्कि इसे बेस्ट पंजाबी फीचर फिल्म का नेशनल अवॉर्ड भी मिला।
पहली रंगीन पंजाबी फिल्म में पृथ्वीराज कपूर ने किया था काम
1969 को पंजाबी सिनेमा का सबसे बेहतरीन साल माना जाता है। इसी साल पंजाबी में बनी पहली रंगीन फिल्म ‘नानक नाम जहाज है’ रिलीज हुई थी। फिल्म में पृथ्वीराज कपूर ने काम किया था और ये ब्लॉकबस्टर साबित हुई, जिससे पंजाबी सिनेमा में दोबारा जान आ गई। पहले जहां पंजाबी सिनेमा दम तोड़ने की कगार पर था, वहीं ये पहली पंजाबी फिल्म थी जिसे देखने के लिए थिएटरों के बाहर लोगों की लाइन लगी हुई थी।
‘नानक नाम जहाज है’ की सक्सेस से पंजाबी फिल्ममेकर्स में भी जोश आ गया और ज्यादा फिल्में बनने लगीं। पंजाबी मूल के बॉलीवुड एक्टर्स भी पंजाबी फिल्मों में दिलचस्पी दिखाने लगे जिसका फिल्ममेकर्स ने भरपूर फायदा उठाया और उन्हें अपनी फिल्मों में कास्ट कर दर्शकों को सिनेमाघरों में खींचने में कामयाब रहे।
70 के दशक में पंजाबी सिनेमा में लगा बॉलीवुड का तड़का
पृथ्वीराज कपूर को देख 70 के दशक में धर्मेंद्र, राजेश खन्ना, सुनील दत्त, राजेंद्र कुमार और मनोज कुमार जैसे सितारों ने पंजाबी फिल्मों का रुख किया। न केवल पंजाबी मूल के एक्टर्स बल्कि नॉन-पंजाबी स्टार्स जैसे फिरोज खान और संजीव कुमार ने भी पंजाबी फिल्में कीं। फिरोज खान ने जहां 1976 में योगिता बाली के साथ फिल्म भगत धन्ना जट्ट में काम किया। वहीं, 1980 में रिलीज हुई फिल्म फौजी चाचा में संजीव कुमार ने सरदार की भूमिका निभाई।
धर्मेंद्र ने अपनी फिल्म तेरी मेरी इक जिंदडी में अपने कजिन वीरेंद्र सिंह को मौका दिया जो कि आगे चलकर पंजाबी सिनेमा के पहले सुपरस्टार बने। वीरेंद्र के अलावा सतीश कौल भी पॉपुलर स्टार थे। दोनों की ही 1980 के आसपास कई फिल्में हिट रही थीं।
इसी दौर में प्रीति सप्रू बेहतरीन एक्ट्रेस बनकर उभरीं और कॉमेडियन मैहर मित्तल ने भी पंजाबी सिनेमा में अपनी बेहतरीन जगह बनाई।
1980 में रिलीज हुई चन्न परदेसी उस साल की सबसे बड़ी हिट फिल्म थी। इस फिल्म ने भी बेस्ट फीचर फिल्म का नेशनल अवॉर्ड जीता था। इसमें राज बब्बर, रमा विज, अमरीश पुरी और कुलभूषण खरबंदा ने काम किया था।
आया जट्ट फिल्मों का दौर
1983 में आई धर्मेंद्र स्टारर फिल्म पुट जट्टन दा एक ट्रेंड सेटर साबित हुई। इसी फिल्म से जट्ट सेंट्रिक फिल्मों का दौर शुरू हुआ जो आज भी जारी है। इस फिल्म के बाद तकरीबन हर पंजाबी फिल्म जट्ट सेंट्रिक होती है। सुपरस्टार वीरेंद्र ने भी 1988 में यारी जट्ट दी बनाई थी। ये पहली फिल्म थी जिसे ओवरसीज शूट किया गया था। ये रोमांटिक फिल्म थी जिसका गाना ‘गुर नालो इश्क मीठा’ काफी पॉपुलर हुआ था।
सुपरस्टार वीरेंद्र की हत्या से लगा झटका
1988 में पंजाबी सिनेमा तब सुर्खियों में आया जब सुपरस्टार वीरेंद्र सिंह की गोली मारकर हत्या कर दी गई। उन्हें जट्ट ते जमीन की शूटिंग के दौरान मौत के घाट उतार दिया गया था। उनकी मौत एक मिस्ट्री बनकर रह गई। रिपोर्ट्स में कहा गया कि इंडस्ट्री में वीरेंद्र के रसूख से कुछ लोग जलते थे जिसकी वजह से उन्हें मार दिया गया। वहीं कुछ रिपोर्ट्स में कहा गया कि ये वो वक्त था जब पंजाब में आतंकवाद अपने पैर पसार चुका था इसलिए ये आतंकियों की करतूत थी।
वीरेंद्र ने अपने 12 साल लंबे फिल्मी करियर में पंजाबी सिनेमा को पीक पर पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई थी। उन्होंने तकरीबन 25 फिल्मों में काम किया था, जिसमें ज्यादातर हिट साबित हुई थीं। इनमें लम्भरदारनी, बलबीरो भाभी और दुश्मनी दी आग जैसी हिट फिल्में शामिल हैं। उनका असली नाम सुभाष डडवाल था। उनका जन्म फगवाड़ा में हुआ था।
उनकी मौत से पंजाबी सिनेमा का बुरा दौर एक बार फिर लौट आया। 90 के दशक के शुरुआती दौर में फिल्में बननी कम हो गईं और जो बनीं वो जट्ट सेंट्रिक विषयों के चलते उतनी ज्यादा नहीं चलीं, जितनी पहले चला करती थीं। जट्ट दा गंडासा, हुकूमत जट्ट दी, शेरों दे पुत शेर, जोर जट्ट दा जैसी फिल्में फ्लॉप रहीं। वहीं 1994 में रिलीज हुई गुरदास मान की फिल्म कचहरी उन चुनिंदा फिल्मों में से थीं जिन्हें न सिर्फ क्रिटिक्स ने सराहा, बल्कि इन्होंने बॉक्स ऑफिस पर भी अच्छा बिजनेस किया।
90 का दशक जहां पंजाबी सिनेमा के लिए अनलकी रहा। वहीं साल 2000 से शुरू हुआ दौर थोड़ी राहत लेकर आया। 1999 में रिलीज हुई फिल्म शहीद ए मोहब्बत बूटा सिंह और शहीद उधम सिंह सक्सेसफुल रहीं। ये दोनों ही फिल्में तकनीक, स्टोरी और परफॉर्मेंस के लिहाज से सराही गई थीं।
2010 में 16 फिल्में रिलीज हुईं। इनमें से जिम्मी शेरगिल, गिप्पी ग्रेवाल की मेल करादे रब्बा ने कमाई के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए थे। फिल्म 11 करोड़ का बिजनेस कर उस समय सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म बन गई थी।